- पुराणाख्यिका: सर्वे पुराणानां तात्त्विकविवेचनं, गूढरहस्यानां उद्घाटनं च भागवतमहापुराणस्य विशदप्रकटनं

पुराणाख्यिका: सर्वे पुराणानां तात्त्विकविवेचनं, गूढरहस्यानां उद्घाटनं च भागवतमहापुराणस्य विशदप्रकटनं

पुराणाख्यिका अस्मिन्ह वेबस्थले सर्वे पुराणानां तात्त्विकविवेचनं, यथार्थतया गूढतमं रहस्यानां उद्घाटनं च प्रदत्तं अस्ति। अत्र भागवतमहापुराणं समाहितं सर्वाणि पुराणानि आध्यात्मिकं, सामाजिकं, धार्मिकं च आर्थिकं दृष्टिकोणं विवेच्य वर्तन्ते। पाठकाः यः प्रत्यक्षं इति अथवा नित्यम् आत्मनं अध्यात्मिकं, सांस्कृतिकं च सामाजिकं जागरणं प्राप्तुं यथा शक्तं, तत्र पुराणाख्यिके सर्वोत्तमा स्थितिः अस्ति।

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गुरुवार, 6 मार्च 2025

श्रीमद् शिवमहापुराण: सृष्टि की उत्पत्ति (40 श्लोक)

श्रीमद् शिवमहापुराण: सृष्टि की उत्पत्ति (40 श्लोक)

शिवमहापुराण

श्रीमद् शिवमहापुराण के 40 श्लोकों के माध्यम से सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन।

सृष्टि उत्पत्ति: शिवमहापुराण के श्लोक

श्लोक 1

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 1)

अन्वय: सर्वस्याध्यात्मिकं तत्त्वं शिव एव सनातनः। तेन सृष्टिः प्रवर्त्तेत युगादौ सत्त्वरूपिणी॥

अर्थ: शिव ही समस्त आध्यात्मिक तत्त्वों के मूल हैं। उन्हीं के द्वारा सृष्टि की प्रवृत्ति सतोगुण रूप में युग के आरंभ में होती है।

व्याख्या: इस श्लोक में बताया गया है कि ब्रह्मांड का आधार शिव हैं, और उनके कारण ही सृष्टि का प्रारंभ सतोगुण की प्रधानता के साथ होता है।

श्लोक 2

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 2)

अन्वय: शिवस्य चिन्मयं रूपं प्रकाशात्मकमीशितुः। तस्यैव संकल्पतोऽस्मिन जगत्सर्वं व्यवस्थितम्॥

अर्थ: शिव का स्वरूप शुद्ध चेतना और प्रकाशमय है। उन्हीं के संकल्प से यह संपूर्ण जगत स्थापित है।

व्याख्या: यह श्लोक शिव के ईश्वर स्वरूप को इंगित करता है, जिनकी चेतना और संकल्प से यह संसार उत्पन्न होता है।

श्लोक 3

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 3)

अन्वय: कालोऽसृजत सृष्टिं च शिवेनैव प्रचोदितः। कालस्य कारणं शंभुः स एव परमेश्वरः॥

अर्थ: समय (काल) ने शिव की प्रेरणा से सृष्टि की रचना की, और शिव ही समय के कारणस्वरूप हैं।

व्याख्या: इस श्लोक में बताया गया है कि काल (समय) भी शिव की प्रेरणा से कार्य करता है, और वे ही सृष्टि के वास्तविक कारण हैं।

श्लोक 4

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 4)

अन्वय: ईशस्य चिन्तनादेव उत्पन्ना प्रकृतिः पुरा। प्रकृतेः सत्त्वरूपेण सृष्टिः संवर्तते मुदा॥

अर्थ: शिव के चिंतन मात्र से आदि प्रकृति उत्पन्न हुई और उसके सतोगुण स्वरूप से सृष्टि की रचना हुई।

व्याख्या: यहाँ प्रकृति की उत्पत्ति का वर्णन किया गया है, जिसमें शिव की दिव्य चेतना से प्रकृति की सृष्टि बताई गई है।

श्लोक 5

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 5)

अन्वय: तस्मात्सत्त्वं तमो रजश्च त्रिगुणाः प्रभवन्ति हि। गुणैरेव भूतसर्गः शिवाज्जायेत नित्यशः॥

अर्थ: शिव से ही सत्त्व, रज, और तम ये तीन गुण उत्पन्न होते हैं। इन्हीं गुणों के द्वारा भूतों (सभी प्राणियों) की सृष्टि निरंतर होती रहती है।

व्याख्या: इस श्लोक में सृष्टि में त्रिगुणों की भूमिका बताई गई है और कहा गया है कि शिव ही उनके मूल स्रोत हैं।

श्लोक 6

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 6)

अन्वय: सृष्टिं सृजति यः पूर्वं स एव संहरत्यपि। लीलया भगवान् शंभुः कालकर्मस्वरूपतः॥

अर्थ: जो शिव पहले सृष्टि की रचना करते हैं, वही काल और कर्म के स्वरूप से उसे संहार भी करते हैं।

व्याख्या: यह श्लोक सृष्टि और संहार की प्रक्रिया को दर्शाता है, जिसमें शिव ही दोनों के कारण रूप में विद्यमान हैं।

श्लोक 7

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 7)

अन्वय: यदज्ञानं महादेवो मायया वेष्टितं जगत्। ज्ञानं तस्यैव शंभोः सत्त्वभावेन वर्तते॥

अर्थ: जब शिव की माया से यह संसार अज्ञान में आच्छादित होता है, तब शिव ही सत्त्व रूप से ज्ञान प्रदान करते हैं।

व्याख्या: इस श्लोक में माया और ज्ञान की व्याख्या की गई है, जिसमें शिव को ही अंतिम ज्ञानस्वरूप बताया गया है।

श्लोक 8

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 8)

अन्वय: पंचभूतात्मकं सर्वं सृष्टं शिवविनिर्मितम्। तस्यैव लयमायाति पुनः कालकृतं क्रमात्॥

अर्थ: पंचभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) से बना समस्त संसार शिव द्वारा निर्मित है, और काल के प्रभाव से अंततः उन्हीं में लीन हो जाता है।

व्याख्या: इस श्लोक में बताया गया है कि पंचभूतों से बनी हुई सृष्टि शिव की ही कृति है और अंततः उन्हीं में विलीन होती है।

श्लोक 9

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 9)

अन्वय: शिवादेव प्रजायन्ते प्रलये च लयं ययुः। स एव कारणं विश्वं नान्यस्तस्य सदृशः॥

अर्थ: सभी प्राणी शिव से उत्पन्न होते हैं और प्रलय के समय उन्हीं में लीन हो जाते हैं। वे ही सृष्टि के कारण हैं, और उनके समान कोई दूसरा नहीं है।

व्याख्या: यह श्लोक शिव की अद्वितीयता और उनकी सृष्टि में सर्वोच्च भूमिका को स्पष्ट करता है।

श्लोक 10

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 10)

अन्वय: यो वै ब्रह्मा च विष्णुश्च रुद्रश्चैव महेश्वरः। सर्वे शिवमयं ह्येतत्संहारादौ व्यवस्थितम्॥

अर्थ: ब्रह्मा, विष्णु, और रुद्र सभी शिवमय ही हैं, और सृष्टि, पालन तथा संहार में उन्हीं की स्थिति है।

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र) शिव के ही विभिन्न रूप हैं, और वे ही संपूर्ण सृष्टि का आधार हैं।

श्लोक 11

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 11)

अन्वय: ईशस्य संकल्पवशात् प्रजाः सर्वाः प्रवर्त्तते। न कश्चिदपि सृष्ट्यन्ते स्वेच्छया वर्तते किल॥

अर्थ: समस्त प्रजाएँ शिव के संकल्प से ही उत्पन्न होती हैं, कोई भी अपनी इच्छा से सृष्टि या संहार में स्वतंत्र नहीं है।

व्याख्या: यह श्लोक दर्शाता है कि शिव ही सृष्टि के नियंत्रक हैं, और उनके संकल्प के बिना कोई भी प्राणी स्वतंत्र रूप से जन्म या मरण को प्राप्त नहीं कर सकता।

श्लोक 12

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 12)

अन्वय: आदौ सृष्टिं करोत्येष त्रिगुणात्मकया प्रभुः। तैरेव स विधत्ते च सर्वं सत्त्वादिभेदतः॥

अर्थ: शिव प्रारंभ में त्रिगुणात्मक (सत्त्व, रज, तम) रूप से सृष्टि का निर्माण करते हैं और उन्हीं गुणों से समस्त संसार की रचना करते हैं।

व्याख्या: इस श्लोक में त्रिगुणों की भूमिका पर बल दिया गया है, जो सृष्टि की गति को निर्धारित करते हैं, और शिव ही इनके मूल स्रोत हैं।

श्लोक 13

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 13)

अन्वय: यस्मादेव सदा शंभुः कर्ता लोकस्य संस्थितः। नान्यः कश्चिदुपायस्तु जीवस्य परमार्थतः॥

अर्थ: शिव ही सदा इस लोक के कर्ता हैं, और उनके अतिरिक्त कोई अन्य जीवों के परम कल्याण का उपाय नहीं है।

व्याख्या: इस श्लोक में शिव को जगत का रचयिता एवं मुक्तिदाता बताया गया है, जिससे ज्ञात होता है कि शिव ही परम तत्त्व हैं।

श्लोक 14

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 14)

अन्वय: नित्यमेव जगत्सर्वं तस्मिन्नेव प्रतिष्ठितम्। न तस्माद्व्यतिरिक्तं हि किंचिदस्ति जगत्त्रये॥

अर्थ: संपूर्ण जगत शिव में ही स्थित है, और तीनों लोकों में शिव से भिन्न कुछ भी अस्तित्व में नहीं है।

व्याख्या: यह श्लोक स्पष्ट करता है कि संपूर्ण ब्रह्मांड शिव के ही भीतर स्थित है, और उनसे अलग कोई भी सत्ता नहीं है।

श्लोक 15

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 15)

अन्वय: सृष्टेः कारणभूतस्तु शिव एव सनातनः। नित्यं तिष्ठति योगात्मा सर्वेषां मंगलप्रदः॥

अर्थ: शिव ही सृष्टि के सनातन कारण हैं। वे सदैव योगात्मा रूप में स्थित रहते हैं और समस्त प्राणियों के लिए मंगलकारी हैं।

व्याख्या: इस श्लोक में शिव के सनातन स्वरूप और उनके योगयुक्त चैतन्य को बताया गया है, जिससे वे समस्त लोकों के कल्याणकारी बनते हैं।

श्लोक 16

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 16)

अन्वय: यस्य संकल्पमात्रेण भूतानि प्रविभाव्यते। स एव सर्वलोकानां मूलकारणमुच्यते॥

अर्थ: जिनके संकल्प मात्र से समस्त भूत (जीव) प्रकट होते हैं, वही समस्त लोकों के मूल कारण माने जाते हैं।

व्याख्या: इस श्लोक में शिव की महिमा का वर्णन किया गया है कि उनका संकल्प ही समस्त जीवों की उत्पत्ति का आधार है।

श्लोक 17

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 17)

अन्वय: कालः कर्म च माया च सृष्टिस्थितिलयात्मिका। एतानि तस्य रूपाणि शिवस्य परमात्मनः॥

अर्थ: काल, कर्म, और माया जो सृष्टि, स्थिति, तथा लय का कारण बनते हैं, ये सभी शिव के ही स्वरूप हैं।

व्याख्या: यह श्लोक स्पष्ट करता है कि शिव ही सृष्टि के सभी कार्यों को संचालित करने वाली शक्तियों के स्रोत हैं।

श्लोक 18

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 18)

अन्वय: तस्मात्सर्वं समुत्पन्नं तस्मिन्नेव लयं गतम्। सर्वं शिवमयं ह्येतत् नास्ति किञ्चित्पृथक् स्थितम्॥

अर्थ: समस्त सृष्टि शिव से उत्पन्न हुई है और अंततः उन्हीं में विलीन हो जाती है। सम्पूर्ण जगत शिवमय है, और उनसे पृथक कुछ भी नहीं है।

व्याख्या: इस श्लोक में अद्वैत सिद्धांत का समर्थन करते हुए बताया गया है कि संपूर्ण जगत शिवस्वरूप ही है।

श्लोक 19

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 19)

अन्वय: अज्ञानवशतः लोका मोहिताः सन्ति नित्यशः। ज्ञानं तस्यैव शंभोः प्रसादात् जायते नरः॥

अर्थ: अज्ञान के कारण जीव नित्य मोह में पड़े रहते हैं, और केवल शिव की कृपा से ही उन्हें सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है।

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि शिव की कृपा से ही व्यक्ति अज्ञान से मुक्त होकर सच्चे ज्ञान को प्राप्त कर सकता है।

श्लोक 20

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 20)

अन्वय: सृष्टिं यः प्रविभज्येदं पालयत्यखिलं जगत्। स एव परमेशानो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः॥

अर्थ: जो शिव इस सृष्टि की रचना करके उसका पालन करते हैं, वही परमेश्वर हैं, और उनके समान कोई दूसरा नहीं है।

व्याख्या: इस श्लोक में शिव को ही परमेश्वर बताया गया है, जो न केवल सृष्टि के रचयिता हैं बल्कि उसके पालक भी हैं।

श्लोक 21

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 21)

अन्वय: एक एव महादेवः सर्वसृष्ट्युपकारकः। नान्यः कश्चिद्विभात्यत्र सर्गस्थितिलयेषु च॥

अर्थ: केवल महादेव ही संपूर्ण सृष्टि के उत्पत्ति, पालन और संहार के कारण हैं, और इन प्रक्रियाओं में उनके अतिरिक्त कोई और नहीं है।

व्याख्या: इस श्लोक में शिव के अद्वितीय स्वरूप को दर्शाया गया है, जिनसे ही संपूर्ण ब्रह्मांड संचालित होता है।

श्लोक 22

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 22)

अन्वय: नित्योदितो महेशानः सर्वव्यापी निरामयः। सर्वकार्यकरः शंभुः सदा सर्वहिते रतः॥

अर्थ: महेश्वर नित्य प्रकाशित, सर्वव्यापी, और शुद्ध हैं। वे सभी कार्यों के कर्ता हैं और सदा सबके कल्याण में संलग्न रहते हैं।

व्याख्या: इस श्लोक में शिव के दिव्य गुणों का उल्लेख किया गया है, जो उन्हें सर्वव्यापी और नित्य मंगलकारी सिद्ध करते हैं।

श्लोक 23

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 23)

अन्वय: यं विना जगतः किञ्चिदपि स्थातुं न शक्यते। स एव परमात्मा च शिवः शाश्वतमव्ययः॥

अर्थ: जिनके बिना यह जगत एक क्षण भी स्थिर नहीं रह सकता, वही शिव परमात्मा हैं, जो शाश्वत और अविनाशी हैं।

व्याख्या: यह श्लोक बताता है कि शिव ही संपूर्ण सृष्टि के आधार हैं, और उनके बिना कुछ भी संभव नहीं है।

श्लोक 24

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 24)

अन्वय: योगिनां ध्यानगम्यश्च सच्चिदानन्दविग्रहः। शुद्धबुद्धिस्वरूपश्च नित्यं मुक्तिप्रदायकः॥

अर्थ: योगियों के ध्यान में आने वाले, सच्चिदानंद स्वरूप शिव ही शुद्ध बुद्धि के प्रतीक और नित्य मुक्तिदाता हैं।

व्याख्या: यह श्लोक शिव को ध्यानयोगियों के लिए सुलभ बताता है और उनके दिव्य आनंदमय स्वरूप की व्याख्या करता है।

श्लोक 25

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 25)

अन्वय: शिवादेव प्रवर्त्तन्ते सृष्टयः पंचधा पुनः। तेषां नियंता देवेशो नित्यं स्थितिप्रदायकः॥

अर्थ: पंचभूतों से उत्पन्न होने वाली समस्त सृष्टि शिव से ही प्रकट होती है, और वे ही उसके परम नियंता तथा पालक हैं।

व्याख्या: इस श्लोक में शिव को सृष्टि के मूल कारण तथा उसके नियंत्रक के रूप में वर्णित किया गया है।

श्लोक 26

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 26)

अन्वय: नास्ति शिवसमो देवो नास्ति तस्मात्परो गुरुः। तस्मान्नित्यमुपास्यः स सर्वसिद्धिप्रदायकः॥

अर्थ: शिव के समान कोई देव नहीं और न ही उनसे श्रेष्ठ कोई गुरु है। अतः शिव की नित्य उपासना करनी चाहिए, क्योंकि वे ही समस्त सिद्धियों के दाता हैं।

व्याख्या: यह श्लोक शिव की सर्वोच्चता को स्पष्ट करता है और उनकी उपासना के महत्व को दर्शाता है।

श्लोक 27

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 27)

अन्वय: यस्य स्मरणमात्रेण दोषाः सर्वे प्रणश्यति। स एव परमं ब्रह्म शंभुर्नात्र विचारणा॥

अर्थ: जिनके स्मरण मात्र से सभी दोष नष्ट हो जाते हैं, वही परम ब्रह्म हैं, और इसमें कोई संदेह नहीं है।

व्याख्या: इस श्लोक में शिव की स्मरण शक्ति को महत्त्व दिया गया है, जो समस्त पापों एवं दोषों को दूर कर देती है।

श्लोक 28

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 28)

अन्वय: योऽहंकारविनिर्मुक्तः शुद्धसत्त्वमयो भवेत्। स शिवं प्राप्नुयादेव नान्यथा मुक्तिरिष्यते॥

अर्थ: जो अहंकार से मुक्त होकर शुद्ध सत्त्वगुण में स्थित होता है, वही शिव की प्राप्ति कर सकता है; अन्यथा मोक्ष संभव नहीं है।

व्याख्या: यह श्लोक आत्मविजय और अहंकार-त्याग के महत्व को प्रतिपादित करता है, जो शिव प्राप्ति का मार्ग है।

श्लोक 29

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 29)

अन्वय: आत्मतत्त्वं शिवं विद्धि न भिन्नं तस्य कर्हिचित्। यो भिन्नं मन्यते मूढो न स मुक्तिं लभेद्ध्रुवम्॥

अर्थ: आत्मतत्त्व को शिव ही समझो, क्योंकि उनसे पृथक कोई सत्ता नहीं है। जो इसे भिन्न मानता है, वह मूर्ख है और उसे मोक्ष प्राप्त नहीं होता।

व्याख्या: यह श्लोक अद्वैत भाव को पुष्ट करता है कि आत्मा और शिव में कोई भेद नहीं है।

श्लोक 30

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 30)

अन्वय: यस्य ज्ञानं महेशाने तस्य मुक्तिर्न संशयः। अज्ञानादेव संसारो नान्यथैवोपपद्यते॥

अर्थ: जिसे महेश्वर का सच्चा ज्ञान प्राप्त होता है, उसे मोक्ष निश्चित रूप से मिलता है। अज्ञान के कारण ही संसार में जन्म-मरण चक्र चलता रहता है।

व्याख्या: यह श्लोक ज्ञान एवं अज्ञान के प्रभाव को समझाता है और शिव-ज्ञान को मोक्ष का साधन बताता है।

श्लोक 31

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 31)

अन्वय: योगिनो ध्यायते नित्यं तं शिवं परमेश्वरम्। यस्मात्सर्वं समुत्पन्नं तस्मै सर्वात्मने नमः॥

अर्थ: योगीजन नित्य परमेश्वर शिव का ध्यान करते हैं। जिनसे समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई है, उन सर्वात्मा को मेरा नमन।

व्याख्या: यह श्लोक योगियों द्वारा शिव की नित्य उपासना का उल्लेख करता है और शिव को समस्त सृष्टि का मूल कारण बताता है।

श्लोक 32

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 32)

अन्वय: सृष्टिस्थित्यंतकर्ता च महादेवो महेश्वरः। अविनाशी सदा शंभुः न तस्योत्तम ईश्वरः॥

अर्थ: महादेव ही सृष्टि, पालन और संहार के कर्ता हैं। वे अविनाशी और नित्य हैं, और उनसे श्रेष्ठ कोई अन्य ईश्वर नहीं है।

व्याख्या: इस श्लोक में शिव को ही सर्वोच्च ईश्वर कहा गया है, जो ब्रह्मांड की समस्त प्रक्रियाओं का संचालन करते हैं।

श्लोक 33

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 33)

अन्वय: ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च शिवाज्ञानात्प्रवर्तते। स एव सर्वदेवानां कारणं परमं पदम्॥

अर्थ: ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र भी शिव की शक्ति से ही कार्य करते हैं। वे ही समस्त देवताओं के कारण और परम स्थान हैं।

व्याख्या: इस श्लोक में शिव को त्रिदेवों के भी कारण रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो समस्त सृष्टि का आधार हैं।

श्लोक 34

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 34)

अन्वय: यो भजत्यखिलं विश्वं शिवं ध्यानपरायणः। स मुक्तो भवति क्षिप्रं नात्र कार्या विचारणा॥

अर्थ: जो साधक समस्त विश्व में शिव को देखकर ध्यान में लीन रहता है स मुक्तो भवति क्षिप्रं नात्र कार्या विचारणा॥

व्याख्या: यह श्लोक ध्यानयोग के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है।

श्लोक 35

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 35)

अन्वय: तं ज्ञात्वा परमात्मानं शिवं ज्ञानमयं विभुम्। न पुनर्जायते जन्तुः संसारसागरे क्वचित्॥

अर्थ: जो शिव को ज्ञानस्वरूप, परमात्मा और सर्वव्यापी रूप में जान लेता है, वह संसार सागर में फिर कभी नहीं जन्म लेता।

व्याख्या: इस श्लोक में शिव-ज्ञान को जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति का साधन बताया गया है।

श्लोक 36

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 36)

अन्वय: नास्ति सत्यं परं किञ्चित् शिवज्ञानात्परं नहि। यो जानाति स मुक्तोऽसौ शिवसाक्षात्परः स्थितः॥

अर्थ: शिव-ज्ञान से बढ़कर कोई और परम सत्य नहीं है। जो इसे जान लेता है, वह मुक्त हो जाता है और शिव में स्थित हो जाता है।

व्याख्या: इस श्लोक में शिव-ज्ञान को ही परम सत्य और मोक्ष का साधन बताया गया है।

श्लोक 37

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 37)

अन्वय: यत्र यत्र स्थितो योगी शिवं ध्यायति भावतः। तत्र तत्र स्वयं साक्षात् शिवः सन्निहितो ध्रुवम्॥

अर्थ: जिस स्थान पर योगी भावपूर्वक शिव का ध्यान करता है, वहाँ स्वयं शिव निश्चित रूप से सन्निहित होते हैं।

व्याख्या: इस श्लोक में ध्यान की महत्ता को दर्शाया गया है, जिससे शिव स्वयं साधक के निकट होते हैं।

श्लोक 38

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 38)

अन्वय: सर्वं शिवमयं विश्वं नान्यत्किञ्चिद्विचार्यते। यो जानाति स मुक्तोऽसौ शिवरूपं स गच्छति॥

अर्थ: संपूर्ण ब्रह्मांड शिवमय है, इससे अलग कुछ भी नहीं है। जो इसे जान लेता है, वह मुक्त हो जाता है और शिवस्वरूप को प्राप्त करता है।

व्याख्या: इस श्लोक में अद्वैत तत्त्व को प्रतिपादित किया गया है कि संपूर्ण जगत शिवमय है।

श्लोक 39

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 39)

अन्वय: नमः शिवाय मंत्रोऽयं सर्वसिद्धिप्रदायकः। जपमात्रेण संसारबन्धनं नश्यते ध्रुवम्॥

अर्थ: ‘नमः शिवाय’ यह मंत्र सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है। इसके जप से संसार के बंधन निश्चित रूप से नष्ट हो जाते हैं।

व्याख्या: यह श्लोक महामंत्र 'नमः शिवाय' की महिमा को दर्शाता है, जिससे मोक्ष प्राप्ति संभव होती है।

श्लोक 40

(वायवीय संहिता, प्रथम अध्याय, श्लोक 40)

अन्वय: शिवस्य कृपया सद्यो मुक्तिर्जायते नरः। तस्मात्सर्वप्रयत्नेन शिवं भजतु पण्डितः॥

अर्थ: शिव की कृपा से मनुष्य को तत्काल मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिए प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति को पूर्ण प्रयासपूर्वक शिव की भक्ति करनी चाहिए।

व्याख्या: यह श्लोक शिव-कृपा के प्रभाव को स्पष्ट करता है और उनकी भक्ति का महत्व दर्शाता है।

© 2023 पुराणाख्यिका

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